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मैं भी खिलना चाहती थी...!!
















तेरे आँगन में चेहेकना चाहती थी... ऊँगली थाम चलना चाहती थी...!
तेरी ममता की छाव में... माँ मैं भी खिलना चाहती थी...!!

मैं बेठी थी अँधेरे में आंख मूंद के, प्यारे से सपने लिए...!
पायेगी तू मुझे ढूंढ़ के एक प्यारी सी मुस्कान लिए...!!
तेरे आँचल से खेलना चाहती थी... माँ मैं भी खिलना चाहती थी...!

न पापा को था प्यार मुझसे.. दादी भी थी पोते की आस लिए...!!
डरते थे दोनों ही मुझसे... कही आ न जाऊ घर बसने के लिए...!
पापा की दुलारी बनना चाहती थी... माँ मैं भी खिलना चाहती थी...!!

बनाते सब तरकीबे... मिलते डॉक्टर ओझा से तुझको साथ लिए...!
जो थे तैयार मुझे मरने को... बेठे हाथो मैं हथियार लिए....!!
सबकी दुनिया देखना चाहती थी.. माँ मैं भी खिलना चाहती थी...!

तुझको महसूस किया मैंने... तुझसे ही सांस ली बस दो पल के लिए...!!
होता सुकून मुझको अगर रहती साथ मेरे तू जिन्दगी भर के लिए...!
तेरी गोदी में सिर रख के सोना चाहती थी.. माँ मैं भी खिलना चाहती थी...!!

Stop murder in womb....





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न भेजो प्रभु ....!!!

न भेजो ऐसे द्वार प्रभु...! जहां चोखट न लांघ पाऊ...!! न कदमो को रोक सकू मैं...! बस  दरवाजे की सांकल बन जाऊ...!! न भेजो ऐसे परिवार प्रभु...! जहां जन्म से ही पराई कहाऊ...!! माँ बाबा को बोझ लागु मैं...! जहां  मौल से मैं ब्याही जाऊ...!! न भेजो ऐसे संसार प्रभु...! जहां खुद को सलामत न पाऊ...!! हर एक  आँख  से घूरी जाऊ मैं..! और हर गली मैं दबोची जाऊ...!! न भेजो ऐसे अन्धकार प्रभु...! जहां  अंधे लोगो में गिनी जाऊ...!! रौशनी भरने की कोशिश करू मैं...! या खुद आग मैं जला दी जाऊ....!! न भेजो प्रभु .. न भेजो....!!! हम हमेशा कहते है.."SAVE GIRLS", " STOP FEMALE FOETICIDE".. पर क्या कभी आपने  सोचा है.. हम जिस बेटी को दुनिया में लाना चाहते है .. क्या वो हमारी दुनिया में सुरक्षित है..???

एक कदम और चलते है ।

आ चल एक कदम और चलते है ।  दूर डगर नापने की बात करते है ॥  फूलो को हाथो में समेट,  पानी से आकाश की रंगोली भरते है।।  एक कदम और चलते है ।। आ मिल शाम को भोर बनाये।  आ मिल जोर से शौर मचाये ॥  सुरों को धुनों की मिटटी से मलते है , आ चल एक कदम और चलते है ।। .....................  साथ चलते है ॥ 

जिन्दगी...........!!!!

कभी हसती हूँ..... तो कभी रोती हूँ ......!! तो कभी खुद को सांत्वना देती हूँ ......!! फिर दूजे ही पल खुद को बेसहारा पाती हूँ ......!! पता नहीं क्यों अब तो हर चीज को मुझसे बेर सा हो गया है......!! कहने को तो अपना पर.. नसीब ही गैर सा हो गया है.....!! कभी कोसती हूँ ओरो को जो मुझे समझ नहीं पाते ......!! तो कभी खुद को जो कभी सफल नहीं हो पाती हूँ ..........!! आईने में देखती हूँ खुद की ही आँखों को....!! कोरो में फसी पानी की बूंदों को .........!! या फिर यूँ कहिये..आँखों से ओझल हसी को ढूंडती हूँ......!! तो कभी खुद से ही घिन्ना के खुद को भी नहीं निहार पाती हूँ......!! अब तो एक एक पल बहूत भरी सा लगता है.......!! रात को सुबह कर और सुबह को रात का इंतज़ार रहता है.....!! मन में बस यही बात रहती है.......!! किसी तरह ये रात कट जाये ....... !! बस किसी तरह ये दिन निकल जाये.......!! जिन्दगी ने इतनी ठोकर दी है.....!! की अब तो जीने की वजह भी नहीं ढूंड पाती हूँ.......!!