झुलसी नन्हे बचपन की फुहार, सिमटता नन्हे सपनो का संसार..!
हर समय मजबूरी का चोला ओढ़े, झेलते स्वार्थी समाज का तिरस्कार...!!
वो नन्हा मटमैला सा मासूम, जिस पर छाई मजदूरी की धुप...!
न खिलोनो से खेले कोई खेल, न जाने कागज़ पेंसिल का आकार...!!
कभी चाय की दूकान पर बैठे, कभी स्टेशन तो कभी कारखाना...!
कभी सडको पर पत्थर वो तोड़े, छोटे हाथो में लिए बड़े औजार...!!
दिन के भूख की चिंता वो करते, साथ पढने की इच्छा भी गढ़ते...!
बस दो रोटी से पेट भरने को, दिन भर मजदूरी को भी तैयार..!!
कितने ही कानून मढ़े गये, करने को बाल श्रम का सुधार..!
फिर भी सवाल बना हुआ है, कैसे होगा बोझिल बचपन का उद्धार..!!
उम्दा सोच
ReplyDeleteभावमय करते शब्दों के साथ गजब का लेखन ...आभार ।
कुछ दिनों से बाहर होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
ReplyDeleteफिर भी सवाल बना हुआ है, कैसे होगा बोझिल बचपन का उद्धार..!!
ReplyDeleteसही कहा है आपने जब तक हम नहीं सुधरेंगे तब तक किसी सुधार की कल्पना नहीं की जा सकती .....प्रेरक रचना आपका आभार ....!
Thnk u Sanjay Bhaiya..
ReplyDeleteVery Nice Thinking who shows ur pain abt blak part of our society's situation
ReplyDeleteThanks Anonymous... :)
ReplyDeleteawesome dee
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